Shaadi ke Do Panne
वो दुल्हन बनी है, और मैं दुल्हा।
बस एक महीना हुआ है एक दूसरे को जानें।
लाल चुन्नी के नीचे उसका चेहरा आधा छुपा हुआ,
जैसे कोई प्रार्थना अधूरी।
मैं सोचता हूँ
क्या ये कन्या मेरे घर की आग संभाल पाएगी?
चूल्हे की गर्माहट, रसोइयों की खामोश राजनीति,
मेरी माँ का तीखापन, मेरी बहन की चिढ़चिढ़ाहट,
मेरे पिता कि चुप्पी और मेरा अपनापन
क्या सब समझ पाएगी?
पर ज़बान चुप है।
आँखों में सिर्फ संकोच है।
आज, सबसे प्रिय सखी के साथ बैठा हूँ।
वो राधे बनी है,
और हम उनके कृष्ण।
दस साल का परिचय,
दस साल का साथ।
उसकी हँसी का सुर,
उसके रूठने का रंग,
उसकी आँखों कि हल्की सी चमक
सब का सब याद है।
घूँघट के पीछे भी
उसकी आँखें मुझे ढूँढ़ लेती हैं।
हम दोनों को पता है
ये शादी मंडप से नहीं,
सांस से जुड़ी है।
मैं सोचता हूँ
क्या ये लड़की समझेगी
मेरी आदतें, मेरी ख़ामोशी,
मेरी थकान, मेरी ज़िम्मेदारियाँ?
प्यार की उम्मीद नहीं।
पर दोस्ती भी होगी कि नहीं
ये भी निश्चित नहीं।
दोनों के हाथों में
एक दूसरे के रंग की कमी है।
सब रस्में हो रही हैं,
बस हम दो लोग
रस्मों से कटरा रहे हैं।
मैं सोचता हूँ
ये मेहंदी, ये हल्दी
और क्या रंग देगी मुझे,
जब मैं तो उसके प्रेम के रंग में
कबका रंग चुका हूँ।
उसके हाथ मेरे हाथों को
एक बार पकड़ ले,
तो पूरे श्रृंगार का काम
एक स्पर्श में पूरा हो जाए।
मेहंदी के लाल से ज़्यादा गहरा
तो उसका एक मुस्कुराना होता है।
अग्नि के सामने बैठे,
मंत्र का उच्चारण तेज़, कठोर लग रहा है।
जैसे हर अक्षर मेरे सीने में एक अधूरा सा बोझ रख रहा हो।
उसके हाथ थोड़े ठंडे,
थोड़े डरे हुए।
मेरे अंदर एक ही धड़कन।
क्या मैं संबंध निभा पाऊँगा?
क्या हम दोनों जी पाएँगे
एक ही छत के नीचे?
सिंदूर मैंने उसके माँग में रखा।
पर मन में कोई दिया नहीं जला।
सिर्फ़ एक ज़िम्मेदारी
जैसे एक भारी चूल्हा
जिसे अब मुझे जलाकर रखना होगा।
अग्नि के सामने बैठे,
उसका हाथ मेरे हाथ में
जैसे कोई पूरी ज़िंदगी थमी हो।
मंत्र मधुर, गर्म, कोमल।
सिंदूर मेरे हाथ में था,
पर उसकी आँखों का भरोसा
मेरा धर्म बन गया।
वो रोई भी थोड़ी,
पर उन आँसुओं में भी
मेरा नाम लिखा था।
हमारे बीच कोई शंका नहीं थी।
ना कोई बोझ, ना कोई डर।
बस एक प्रार्थना
“हम दोनों एक ही प्राण बने रहें।”
बारात में सब मुस्कुरा रहे थे।
मैं नहीं।
मैं बस चल रहा था।
ढोल के बजते हुए ताल मेरे अंदर नहीं उतर रहे।
सबने कहा
“लड़की अच्छी है।”
हाँ… होगी।
पर क्या मैं उसके लिए अच्छा हूँ?
आज एक पूरी ज़िंदगी घर ला रहा हूँ।
क्या मैं उसका घर बन पाऊँगा?
बारात में हम दोनों ही एक दूसरे को देख रहे थे।
लोग, ढोल, शोर
सब ग़ायब।
बस वो।
बस मैं।
उसकी आँखों में पूरा संगीत था।
उसके श्रृंगार का एक-एक फूल
मुझे लगा जैसे मेरे लिए ही खिला हो।
वो सोलह श्रृंगार में
प्रार्थना सी लग रही थी।
मैं बस इतना सोच रहा था
कि ये जीवन मुझे
किस अधिकार से मिल गया।
विदाई हुई।
उसने मुझे नहीं देखा।
मैं भी नहीं देख पाया।
दो अजीब लोग
एक ही गाड़ी में बैठ गए।
मैं जानता हूँ
शुरुआत आसान नहीं होगी।
पर शायद
दोस्ती हो जाए।
या कम से कम
इज़्ज़त और दया।
शादी
सिर्फ़ बंधन नहीं होती।
कभी-कभी
एक बोझ भी होती है।
आज समझा।
विदाई हुई।
वो मेरी बहों में गिर पड़ी।
उसके आँसू
मेरे कुर्ते पर लग गए।
पर उसकी आँखों में
कोई डर नहीं।
सिर्फ़ भरोसा।
गाड़ी में बैठी तो
उसने हाथ मेरे हाथ पर रख दिया।
कृष्ण, घर छोड़ रही हूँ,
पर घर ही जा रही हूँ।
A.V
A.V
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